अकेले चला बग़ैर हाँथ थामे, हाँथों में हाँथ माँगा था, पर तुम्हे मेरे हालातों से बदनाम कँहा होना था, ज़ानिब मैं थोड़ा दूर क्या गया,लोगो ने बड़ा समझ लिया, वो मेरा अपना है कह कह कर इस पर "क़ाफ़िला" जमा लिया, अकेले ही चला जिस सफ़र में मैं तो फ़िर ज़ानिब ये "क़ाफ़िला" अपनो का कँहा बना लिया।
Wednesday, 5 September 2018
Friday, 31 August 2018
Thursday, 30 August 2018
Friday, 24 August 2018
Thursday, 23 August 2018
Wednesday, 22 August 2018
Tuesday, 21 August 2018
Sunday, 19 August 2018
Thursday, 16 August 2018
सार्वजनिक डायरी
हर कोई लेखक नही आज,
हर कोई लिखता है आज एक दो को छोड़ कर ,,
आज कोई कलम से डायरी नही भरता,
दिन भर का हिसाब सोशल साइट्स पर होता है।
डायरियां खुद ब खुद वाक्या नही बतलाती हैं,
वाक्या याद दिला कर (पिछली सोच) यानी याद से तरोताज़ा भी करता है,
इक्तिफाखन डायरियां पढ़ने का वक़्त किसको कँहा अब,
जो अंगूठे को चलाने की आदत सी हो चुकी हैं,
यूँ ही गुज़रे वक़्त को देख उस दिन को गुनगुना सोच कर दोबारा साँसें रोक लेता हूँ।
हर कोई लेखक नही आज, लिखते सब किसी तौर से है।
बोलते जो लोग हैं वही बस लिखते सुनाते है।
दो तारफ़ा चलने,बोलने, देखने, ज़ीने वाले भी बहुत है,
फेसबुक तफ़रीह का घर नही हर किसी की निजी डायरी है।
निज़ी चीज़ो पर कितना ऐयतियाद बर्तना पड़ता है ये भी जानते हो आप.........
Monday, 13 August 2018
Sunday, 12 August 2018
Saturday, 11 August 2018
Tuesday, 7 August 2018
Monday, 6 August 2018
Friday, 3 August 2018
Tuesday, 31 July 2018
Sunday, 29 July 2018
Tuesday, 10 July 2018
कई दफ़ा
दिल को कई दफ़ा लगाया तुम्हारे बाद,
जाने क्यों लगा ही नहीं कंही तुम्हारे बाद,,
आकाश कुमार
https://www.facebook.com/Qaafila16/
Sunday, 8 July 2018
Saturday, 7 July 2018
Friday, 6 July 2018
राज़दार इश्क़
Qaafila - क़ाफ़िला
किसी दौर में संज़ीदा राज़दार इश्क़ भी हुआ करते थे,
आज कल तो सब नुमाइशी बाज़ार के हिस्सा हुआ करते है,,
आकाश कुमार
Tuesday, 3 July 2018
खाली वक़्त
-: खाली वक़्त :-
खाली वक़्त नहीं जो बस गुज़ारने आता हूँ,
पास आता हूँ मग़र ख़ुश होने को आता हूँ,,
तुम्हारे अपनेपन के साथ खुस भी होता हूँ,
जैसे ही जाता हूँ फ़िर पहले जैसा हो जाता हूँ,,
इश्क़ एक बार ही होता है,
मग़र साथ तो नहीं हुए वो,,
दोबारा में भी इश्क़ जैसा ही कुछ है,
साथ का तो नहीं पता, पहले से बेहतर है,,
दुःखों के साथ सफ़र करने के बाद,
इस बार ख़ुशी के अनुभव का अहसास है,,
पहली बार में साथ की उम्मीद थी,
इस बार कोई ख़्वाइश ही नहीं थी,,
तब मुलाक़ातों की बेचैनी हुआ करती थी,
बगैर इंतज़ार के सातवे दिन मुलाक़ात हो जाती है,,
उलझनों में उलझा रहता हूँ,
तुम्हारे पास आते ही सुलझ जाता हूँ,,
तुमको ख़बर रहता है अपने वक़्त का,
मुझको ख़बर नहीं मेरे ही वक़्त का,,
तुम काश विशाल समुंदर हो जाती,
मैं उसमे ही डूब कर हिस्सा हो जाता,,
न तुम्हारे पास ज़िम्मेदारी होती,
न मैंने कोई बाग़डोर थामी होती,,
तुम्हे लहरें न पसंद होती,
मुझे वादियाँ न पसंद होती,,
तो फ़ि. . . . . . . . . . .
"अनन्त सफ़र के बाद शायद लहरों और वादियों का मिलाप भी हो जाता,,
"आकाश कुमार"
Friday, 29 June 2018
कुछ भी नहीं हो तुम
कुछ भी नहीं हो तुम नहीं सही,
समझने का मौका तो दो सही,,
बस तुम्हे देखता रहूँ मैं,
कोई ऎसी शाम तो दो सही,,
आज़ादियों के समह मे,
पंख फ़ैलाने का मौका तो दो सही,,
तुम मेरी कुछ भी नहीं सही,
कुछ देर मेरे पास ठहरो तो सही,,
कुछ हमारी कुछ तुम्हारी,
कहने को कहानियाँ हो तो सही,,
गुज़ारने को यादें हो मगर,
यादों का कोई ज़रिया तो हो सही,,
तुम्हारे बदलते मौसम का,
कुछ असर हम पर भी हो तो सही,,
तुम्हारे चेहरे के बदलते रंगो का,
गुज़रती उम्र का अह्सास हमे भी हो तो सही,,
पसंद और नपसंद के अदला बदली में,
समझौते से तुम्हारी नम आँखों के साथ नम मेरी भी हो तो सही,,
हस्ते खिलखिलाते सुलझाते बालों के साथ पर्दा हटाओ तो सही,
मेरे अशिआना में फैले अँधेरे पर रोशनी को आने तो दो सही,,
दूर से ही ऐसे मौसमों से तुम्हे,
उभरने के नए ज़रिया देखें तो सही,,
दूर से अब दिखाई नहीं देता है, या पहचान नहीं पाता हूँ,
अब तुम ही हो वंही या नहीं, कोई पता कर के बताए तो सही,,
आकाश कुमार
Tuesday, 26 June 2018
तार_वार दिल के
ये तार_वार दिल के सब टूट से गए,
तुम से मिलने की सारी रस्म टूट सी गईं,,
जिंदगी से जुगनू वाली रोशनी खो सी गई,
जिंदगी से तुम जब से रूठ सी गई हो,,
शायद बेवज़ह की बातें हुई होंगी ,
तुम जो रूठी हो शायद यही वज़ह होगी,,
दोबारा मिलने_मिलाने का कोई तो बहाना होगा,
या फ़िर कोई आज़माइश का ठिकाना न होगा,,
अगर तुम कभी कंही उलझ जाना,
संदेश में अपना पता तो बता जाना,,
तुम साथ न रहना कुछ दूर ही रहना,
बिना ख़बर हुए तुमको कुछ दूरी पर आशियाँ बना लेंगे,,
हर रोज एक उगते सूरज की तरह तुम्हे देखूंगा,
तुम बस गुज़रते वक़्त की तरह रोज़ शाम ले आना,,
हम उमीदों को बुला कर हर रोज़,
भोर के बाद चाय सुट्टे का लुफ़्त लेंगे,,
ऎसे ही तार ये दिल के सायद जुड़ जाये,
या फिर ख़्वाब के साथ ही ये जमाना गुज़र जाए.......,,
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हम से भी हसीन उनकी किताबें होती है, जो किताबों पर उँगलियों के रक़्स होते है। रातों को न जाने कितने पन्नें कितनी मरतबं पलटे ...