Tuesday, 4 September 2018


चलते फ़िरते शहर के नीचे एक शहर बस्ता है,
एक डर रहता है ये इमारतें ढा न जायें कभी,,

इनको खड़ा करने में दिल और वक़्त दोनो लगता है,
टूटे दिल से हिम्मत जुटाना भी अब मुश्किल लगता है,,

तुम्हारे केशुओं की तरह छत का ठिकाना नही लगता है,
हँसते खेलते, चलते फ़िरते शहर के नीचे भी एक शहर बस्ता है।

Akash Kumar Dhuria




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