Monday, 18 June 2018

अपने





मेरे अपने जो थे कब के छूट गए थे ,
रक़ीब की जुबां से नए भी रूठ गए है ,,

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हम से भी हसीन उनकी किताबें होती है, जो किताबों पर उँगलियों के रक़्स होते है। रातों को न जाने कितने पन्नें कितनी मरतबं पलटे ...